हिम न्यूज़ शिमला। राज्यपाल शिव प्रताप शुक्ल ने कहा कि भाषायी लिपि यदि देवनागरी होती तो सभी भाषाओं को आसानी से समझा और जाना जा सकता है। उन्होंने कहा कि बहुभाषी देश होने के बावजूद यहां अनेकता में एकता है और यही भारत की विशेषता है। राज्यपाल आज यहां भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में ‘‘भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद की समस्याएं-तुलसीदास के रामचरितमानस के दक्षिण भारतीय भाषाओं में अनुवाद का एक अध्ययन’’ विषय पर दो दिवसीय सेमिनार के उद्घाटन अवसर पर बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे। उन्होंने इस अवसर पर, संस्थान में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया।
उन्होंने कहा कि यह विषय केवल भाषा के अध्ययन का नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक एकता और राष्ट्रीय चेतना का भी जीवंत प्रतीक है। भारत में सैकड़ों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। इनके बीच संवाद और समझ की सेतु रचना का कार्य ‘अनुवाद’ के माध्यम से ही संभव है। विशेषकर, प्राचीन आध्यात्मिक धरोहरों के मूल्यों को भावी पीढ़ियों तक पहुंचाने का सबसे प्रमुख माध्यम अनुवाद ही है। शुक्ल ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस इस परंपरा में एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि उत्तर भारत की सांस्कृतिक चेतना का आधार भी है। यह ग्रंथ स्वयं वाल्मीकि रामायण और अध्यात्म रामायण की एक कलात्मक पुनर्रचना है।
उन्होंने तुलसीदास जी को भूमण्डलीय विश्व कवि बताते हुए कहा कि उनके द्वारा लिखा गया रामचरित मानस एक विश्व काव्य है, जो यह मानवमात्र को समर्पित है। उन्होंने कहा कि यदि ईसाइयत और यवन मत के धर्म धुरन्धर आलोचक मनोमुग्ध होकर इस कवि के वर्चस्व का अभिनंदन करते हैं तो सुखद आश्चर्य होता है। राज्यपाल ने कहा कि दक्षिण भारत की भाषाओं, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम की अपनी-अपनी रामायण परंपराएं पहले से रही हैं। फिर भी, रामचरितमानस ने वहाँ भी गहरी छाप छोड़ी है। उन्होंने कहा कि यह सेमिनार इस दृष्टिकोण से अत्यंत प्रासंगिक है कि इसमें दक्षिण भारतीय भाषाओं में रामचरितमानस के अनुवादों का तुलनात्मक और समालोचनात्मक अध्ययन किया जाएगा। उन्होंने कहा कि रामचरितमानस जैसे ग्रंथ में ध्वनि और रस की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। जब इन भावों को किसी अन्य भाषा में रूपांतरित किया जाता है, तो वह केवल शब्दों का अनुवाद नहीं होता, बल्कि एक सांस्कृतिक पुनर्जन्म होता है।
उन्होंने कहा कि श्री रामचरितमानस के दक्षिण भारतीय भाषाओं में अनुवाद की जो सबसे बड़ी समस्या है, वह है इस ग्रंथ का अवधी भाषा में होना। क्योंकि अवधी भाषा के शब्द मानक हिन्दी के शब्दों से मेल नहीं खाते हैं।
राज्यपाल ने इस अवसर पर प्रो. हरिमोहन बुधौलिया द्वारा लिखी पुस्तक ‘‘भारतीय भाषाओं में हनुमत् काव्य परम्परा’’ का विमोचन भी किया। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के शासी निकाय की अध्यक्षा प्रो. शशिप्रभा कुमार ने राज्यपाल का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि विश्व की अनेक भाषाओं में रामचरित मानस का अनुवाद हुआ है। उन्होंने कहा कि साहित्य की दृष्टि से सबके अपने-अपने भेद हो सकते हैं लेकिन सूत्र एक है, जो भारतीय संस्कृति की विशेषता है। भगवान राम हमारी भावनात्मक एकता के प्रतीक हैं।
जीवन दीप आश्रम, हरिद्वार से पधारे महामंडलेश्वर स्वामी यतींद्रानंद गिरि जी ने कहा कि ईश्वरीय प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखा और वह भी उस कालखण्ड में जब राम के चरित्र को मिटाने का प्रयास किया जा रहा था। उन्होंने कहा कि यह हम सबका दायित्व है कि अपने पौराणिक ग्रंथों को संरक्षित रखें। उन्होंने कहा कि भारत का दर्शन समग्र की सोच रखता है और यह दर्शन पहले मनुष्य बनने पर बल देता है। लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और मुख्य वक्ता प्रो. सूर्य प्रसाद दीक्षित ने कहा कि वेदों,पुराणों, उपनिषद्ों, शास्त्रों, काव्यों और नाटकों इत्यादि में रामकथा का उल्लेख मिलता है। कई देशों में इसका विस्तार हुआ है। उन्होंने कहा कि रामकथा का मूल खोजा नहीं जा सकता। उन्होंने दक्षिण भारत की विभिन्न भाषाओं में रामकथा का उल्लेख किया और उनकी व्यापकता पर चर्चा की।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति प्रो. जी. गोपीनाथन ने सेमिनार के विषय को सांस्कृतिक महत्व, तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद की दृष्टि से विवेचना पर विचार व्यक्त किए। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के निदेशक और पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के कुलपति प्रोफेसर राघवेंद्र पी. तिवारी ने राज्यपाल का स्वागत किया तथा सेमिनार के विषय को लेकर विस्तार से जानकारी दी। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के सचिव श्री मेहर चंद नेगी ने धन्यवाद प्रस्ताव प्रस्तुत किया। राज्यपाल के सचिव सी.पी. वर्मा, देश भर से आए अध्येता और अन्य प्रतिभागी इस अवसर पर उपस्थित थे।